यह पहली बार नहीं है, जब किसी वित्त मंत्री ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है. 1984 के बाद 8 वित्त मंत्री चुनाव लड़ने से पीछे हट गए हैं. एक लड़े भी तो बुरी तरह हार गए.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है. हाल ही में एक इंटरव्यू में वित्त मंत्री सीतारमण ने कहा है कि मुझे पार्टी ने तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश से चुनाव लड़ने का ऑफर किया, लेकिन मैंने काफी सोचने के बाद मना कर दिया.
सीतारमण के मुताबिक उनके पास न तो चुनाव लड़ने के लिए संसाधन है और न ही चुनाव जीतने की कला. वित्त मंत्री ने कहा कि चुनाव लड़ने के लिए आपको कई समीकरण साधने पड़ते हैं. जैसे- जेंडर, जाति वगैरह-वगैरह…
उन्होंने आगे कहा कि यह सब मुझसे नहीं हो पाता, इसलिए मैंने इससे खुद को दूर कर लिया है. पार्टी ने भी मेरी बात को समझा.
हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जब कोई वित्त मंत्री लोकसभा चुनाव लड़ने से हाथ पीछे खिंच लिया हो. 1984 के बाद एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए, तो कोई भी नेता वित्त मंत्री रहते या तो लोकसभा का चुनाव नहीं लड़े या लड़े भी तो जीत नहीं पाए.
इस फेहरिस्त में यशवंत सिन्हा से लेकर मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम से लेकर अरुण जेटली तक का नाम शामिल है.
इस स्पेशल स्टोरी में इन्हीं वित्त मंत्रियों की कहानी को विस्तार से पढ़ते हैं…
वित्त मंत्रियों का चुनाव न लड़ने या हारने की पूरी कहानी
1952 में सीडी देशमुख को वित्त मंत्रालय की कमान सौंपी गई थी. हालांकि, 1957 के चुनाव से पहले ही उन्हें पद से हटा दिया गया. देशमुख की जगह पर टीटी कृष्णामाचारी को वित्त मंत्रालय की कमान मिली. कृष्णामाचारी के बाद मोरारजी को वित्त मंत्रालय की कमान मिली.
इंदिरा सरकार में यशंवतराव चव्हाण और सी सुब्रमण्यण जैसे दिग्गज नेता वित्त मंत्री थे. मोरारजी जब पीएम बने तो उन्होंने वित्त की कमान हिरु भाई पटेल को सौंपी. चरण सिंह सरकार में हेमवती नंदन बहुगुणा वित्त मंत्री बनाए गए.
1980 तक वित्त मंत्री लोकसभा के चुनाव लड़ते भी थे और जीतते भी थे, लेकिन 1980 के बाद वित्त मंत्री के लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने या हारने का ट्रेंड ने जोर पकड़ लिया.
1. 1984 में पहली बार चुनाव से दूर रहे थे 2 वित्त मंत्री
1980 में इंदिरा गांधी जब तीसरी बार प्रधानमंत्री बनी तो उन्होंने अपनी सरकार में आर वेंकेटरमण और प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी. प्रणब जब वित्त मंत्री बने, तब वे गुजरात से राज्यसभा के सांसद थे.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब 1984 में लोकसभा चुनाव हुए तो दोनों वित्त मंत्री चुनाव मैदान में नहीं उतरे. वेंकेटरमण देश के उपराष्ट्रपति बनने की वजह से चुनावी प्रक्रिया से दूर हो गए, जबकि मुखर्जी को राजीव गुट ने अलग-थलग कर दिया.
2. राजीव के वित्त मंत्री ने खुद की जगह बेटे को उतारा
राजीव गांधी सरकार में वित्त रहे शंकर राव चव्हाण भी 1989 में चुनाव लड़ने से पीछे हट गए थे. चव्हाण जब चुनाव नहीं लड़ने की बात कही, तो पार्टी ने उनके बेटे अशोक चव्हाण को नांदेड़ सीट से प्रत्याशी बना दिया.
अशोक के सामने जनता पार्टी ने के. वेंकेटेश को मैदान में उतारा. अशोक चव्हाण यह चुनाव 24 हजार वोट से हार गए.
दूसरी तरफ राज्यसभा के सहारे शंकर राव चव्हाण सदन पहुंच गए. राव 1996 तक राज्यसभा के सांसद रहे. उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल का नेता भी बनाया. बाद के दिनों में अशोक चव्हाण कांग्रेस के बड़े नेता बन गए. वर्तमान में वे बीजेपी से राज्यसभा सांसद हैं.
3. नरसिम्हा राव के वित्त मंत्री चुनाव ही नहीं लड़े
1991 में कांग्रेस की जब सत्ता में वापसी हुई तो पार्टी ने पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया. राव ने अपने कैबिनेट में मनमोहन सिंह को शामिल किया. सिंह उस वक्त किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे.
सिंह को पार्टी ने राज्यसभा के जरिए सदन में भेजा. सिंह इसके बाद राज्यसभा के जरिए ही राजनीति की.
1996, 2004 और 2009 में सिंह के चुनाव लड़ने की चर्चा भी हुई, लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव से खुद को दूर ही रखा. 2004 में जब सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने, तब भी वे राज्यसभा के ही सदस्य थे.
4. वाजपेई के एक मंत्री हारे, एक लड़े ही नहीं
1999-2004 तक अटल बिहारी कैबिनेट में 2 लोगों को वित्त मंत्री बनाया गया. शुरुआत के 3 साल जसवंत सिंह वित्त मंत्री के पद पर रहे और बाद में यह प्रभार यशवंत सिन्हा को सौंपी गई.
2004 में अटल कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे जशवंत सिंह चुनाव नहीं लड़े, जबकि यशवंत सिन्हा हजारीबाग सीट से मैदान में उतरे.
बीजेपी ने इस चुनाव में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया था, लेकिन उसके वित्त मंत्री ही चुनाव हार गए. 2004 के चुनाव में सीपीआई के भानु प्रताप मेहता ने सिन्हा को करीब 1 लाख वोटों से
हराया.
हालांकि, सिन्हा 2009 में इस सीट से वापसी करने में कामयाब रहे.
5. चुनावी साल में मनमोहन ने खुद रख लिया था वित्त मंत्रालय
यूपीए की पहली सरकार में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. कैबिनेट में पी चिदंबरम को वित्त मंत्री बनाया गया था. 2008 में मुंबई हमले के वक्त चिदंबरम को गृह विभाग की कमान दी गई. इसके बाद यह मंत्रालय प्रणब मुखर्जी को देने की चर्चा हुई, लेकिन मनमोहन ने खुद के पास ही इसे रखा.
2009 के चुनाव में मनमोहन खुद चुनाव नहीं लड़े. पार्टी का तर्क था कि मनमोहन सभी जगह कैंपेन करेंगे, इसलिए वे चुनाव नहीं लड़ रहे हैं.
6. यूपीए के दूसरे कार्यकाल में 2 वित्त मंत्री बने, दोनों नहीं लड़े
मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में 2 वित्त मंत्री बने, लेकिन दोनों चुनाव मैदान में नहीं उतरे. मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में पहले प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाया गया. 2012 में वे राष्ट्रपति बन गए. इसके बाद यह विभाग पी चिदंबरम को दे दिया गया.
2014 में पी चिदंबरम ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया. चिदंबरम उस वक्त शिवगंगा सीट से सांसद थे. पार्टी ने चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम को यहां से प्रत्याशी बनाया. हालांकि, कार्ति यह चुनाव जीतने में नाकाम रहे.
पी चिदंबरम वर्तमान में राज्यसभा के सांसद हैं और कांग्रेस पार्टी के लिए मेनिफेस्टो बना रहे हैं.
7. मोदी के वित्त मंत्री भी चुनाव लड़ने से पीछे हटे
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी, तो वकील अरुण जेटली को वित्त मंत्री बनाया गया. जेटली उस वक्त राज्यसभा से सांसद थे. कुछ महीनों को छोड़ दिया जाए, तो पूरे 5 साल जेटली ही वित्त मंत्री रहे.
जनवरी 2019 से फरवरी 2019 तक पीयूष गोयल को भी वित्त मंत्रालय का जिम्मा मिला था.
दिलचस्प बात है कि 2019 लोकसभा चुनाव में दोनों मंत्री चुनाव नहीं लड़े. 2019 लोकसभा चुनाव के बाद जेटली कैबिनेट में नहीं लिए गए. हालांकि, पीयूष गोयल को जरूर मंत्री बनाया गया.
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में निर्मला सीतारमण को वित्त मंत्री बनाया गया. सीतारमण पूरे 5 साल तक वित्त मंत्री रही हैं. हालांकि, 2024 में लोकसभा चुनाव लड़ने से उन्होंने भी इनकार कर दिया है.
वित्त मंत्री क्यों नहीं लड़ते लोकसभा चुनाव?
पूर्व राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार अली अनवर के मुताबिक लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए पैसे के साथ-साथ नेताओं के लिए समीकरण जरूरी है. इन दोनों में से अगर एक की कमी है, तो प्रत्याशी के लिए जीत मुश्किल हो सकती है.
यहां समीकरण से तात्पर्य है- सीटों का भौगोलिक और जातीय समीकरण.
1980 के बाद जितने भी वित्त मंत्री बने, उनमें से अधिकांश पैराशूट राजनेता थे. वित्त मंत्री का पद उन्हें पार्टी के आंतरिक राजनीति या किसी अन्य कारणों से मिलता रहा है. इसे 3 उदाहरण से समझिए-
1. 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार बनी तो कोई भी बड़े नेता वित्त मंत्रालय लेने को तैयार नहीं थे. राव खुद भी इसे अपने पास नहीं रखना चाहते थे. उस वक्त राव ने अपने सचिव पीसी एलेक्जेंडर को वित्त मंत्री के लिए 2 नाम सुझाने के लिए कहा.
राव पर किताब लिखने वाले पत्रकार विनय सीतापति के मुताबिक एलेक्जेंडर ने रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर आईजी पटेल और मनमोहन सिंह का नाम सुझाया था. पटेल ने जब यह प्रस्ताव खारिज कर दिया तो राव ने मनमोहन का रूख किया.
सीतापति के मुताबिक राव ने मनमोहन से एक डील की. इसके मुताबिक अगर भारत आर्थिक संकट से नहीं उभरेगा तो मनमोहन को कुर्सी छोड़नी पड़ेगी और अगर उभर गया तो इसका श्रेय दोनों के बीच बंटेगा.
वित्त मंत्री बनाने के बाद राव ने मनमोहन को राज्यसभा के जरिए उच्च सदन भेजा.
2. मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए थे और वित्त मंत्रालय खुद के पास रखना चाहते थे. मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू के मुताबिक कांग्रेस पार्टी में सब इसके लिए तैयार भी थे, लेकिन आखिर वक्त में पी चिदंबरम ने खेल कर दिया.
चिदंबरम वित्त मंत्रालय के लिए अड़ गए, जिससे कांग्रेस हाईकमान बैकफुट पर आ गया. आखिर में मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय चिदंबरम को देनी पड़ी.
3. 2014 में अरुण जेटली लोकसभा के चुनाव लड़े. पंजाब के तत्कालीन सीएम प्रकाश सिंह बादल ने घोषणा करते हुए कहा कि जेटली को जिताइए, यह वित्त मंत्री बनेंगे और जनता की मदद करेंगे. लोकसभा चुनाव में यह मुद्दा भी बना.
हालांकि, जेटली चुनाव जीतने में असफल रहे, लेकिन पार्टी की अंदरुनी राजनीति और प्रधानमंत्री से मित्रता की वजह से अरुण जेटली को वित्त मंत्रालय का ही प्रभार मिला.
चुनाव न लड़ने की एक दूसरी बड़ी वजह एंटी इनकंबैंसी का होना भी है. आम तौर पर हर चुनाव में महंगाई एक बड़ा मुद्दा रहता है, जो सीधे तौर पर सरकार के वित्त विभाग से जुड़ा होता है.
सीएसडीएस के मुताबिक 2019 में 4 प्रतिशत लोगों ने महंगाई को तो 11 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा माना था. 2014 में 19 प्रतिशत लोगों के लिए महंगाई एक बड़ा मुद्दा रहा है.