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पहले संविधान में बदलाव, फिर विपक्ष पर दबाव, समझिए बांग्लादेश में कैसे धीरे-धीरे खत्म हो रहा है लोकतंत्र

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बांग्लादेश में आज आम चुनाव हो रहे हैं लेकिन प्रचार के दौरान एक महीने के भीतर इस देश में कम से कम 221 झड़पें हो चुकी हैं और 6 लोगों की जान जा चुकी है.

किसी भी देश के लिए ‘आम चुनाव’ का दिन किसी बड़े त्योहार से कम नहीं होता. ये वो खास दिन है जब जनता अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर तय करती है कि उनके देश की सत्ता किस पार्टी के हाथ में होगी. बांग्लादेश में भी आज वही खास दिन है. 

रविवार, 7 जनवरी को इस देश में आम चुनाव हो रहे है. हालांकि यहां का चुनाव बाकी देशों से काफी अलग है. ऐसा इसलिए क्योंकि यहां की जनता का इस इलेक्शन से मोहभंग हो चुका है. उनका मानना है कि ये बस नाम भर का चुनाव है, इसका नतीजा क्या आने वाला है वो तो उन्हें पहले से ही पता हैं. 

इस चुनाव की खास बात ये भी है कि यहां के जनता के पास किसी और उम्मीदवार को वोट देने का विकल्प भी नहीं हैं. क्योंकि ज्यादातर विपक्षी नेता या तो जेल में बंद हैं या जो बाहर बचे हैं उन्होंने आम चुनाव का बहिष्कार किया हुआ है. 

ऐसे में इस रिपोर्ट में जानते है कि बांग्लादेश में लोकतंत्र का ये हाल कैसे हो गया, यहां चुनाव कैसे होता है और इस चुनाव में किन दलों के बीच है मुकाबला?

आगे चलने के पहले इस देश के इतिहास के बारे में जान लेते है…

यह देश साल 1947 से पहले भारत का हिस्सा था. उस वक्त बांग्लादेश को ईस्ट बंगाल कहा जाता है. भारत पाकिस्तान का विभाजन के 8 साल बाद यानी साल 1955 में ईस्ट बंगाल के नाम को  बदलकर ईस्ट पाकिस्तान रख दिया गया. 

साल 1971 के भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के बाद ईस्ट पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया. उस वक्त देश की सत्ता अवामी लीग पार्टी के हाथों में आई और शेख मुजीबुर रहमान बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति बने. इसके बाद वह प्रधानमंत्री भी बने. उन्हें बांग्लादेश का संस्थापक भी कहा जाता है.  वह 17 अप्रैल 1971 से लेकर 15 अगस्त 1975 तक देश के प्रधानमंत्री रहे. उसी दिन उनकी हत्या हुई थी.

मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद अवामी लीग पार्टी की बागडोर उनकी बेटी शेख हसीना ने संभाली. साल 1981 में शेख हसीना आवामी लीग पार्टी की नेता चुनी गईं. इसके बाद उन्होंने साल 1996 से 2000 और 2008 से 2013 तक दो बार प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया. साल 2014 के चुनाव में जब विपक्षी दल ने चुनाव लड़ने से बहिष्कार कर दिया था उस वक्त भी शेख प्रधानमंत्री पद पर कार्यरत रहीं.

प्रचार के दौरान 221 झड़पें और 6 लोगों की जा चुकी है जान

इस देश में 12वीं आम चुनाव को लेकर 18 दिसंबर से चुनाव प्रचार शुरू हुए थे. तब से कई अखबारें इस पूर्वानुमानों से भरी हुई है कि इस बार भी प्रधानमंत्री शेख हसीना को ही बनाया जा सकता है. ऐसे में यहां के लोगों को लगता है कि उनकी शेख के दोबारा पीएम बनने से उनकी जिंदगी में कुछ ज्याद सुधार नहीं आएगा. 

इतना ही नहीं चुनाव प्रचार शुरू होने से लेकर आम चुनाव के दिन तक, एक महीने के भीतर इस देश में  कम से कम 221 झड़पें हो चुकी हैं,  6 लोगों की जान जा चुकी है और चुनावी आचार संहिता उल्लंघन के 256 मामले दर्ज किए जा चुके हैं. 

अब समझते हैं कि इस देश में चुनाव कैसे होते हैं 

बांग्लादेश में एक संसद की व्यवस्था है, जिसे जातीय संसद यानी हाउस ऑफ द नेशन कहा जाता है. इस संसद में 350 सदस्य होते हैं. इन 350 सदस्यों में से 300 सदस्य वोटिंग के माध्यम से  चुने जाते हैं.

वहीं 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित वोट शेयर के आधार पर बांटी जाती है. अब बांग्लादेश में सरकार बनाने के लिए किसी भी राजनीतिक पार्टी को 151 सीटों पर जीत दर्ज करना जरूरी होता है और इस देश के संसदीय चुनाव हर पांच साल में होते हैं.

कैसे होती है वोटिंग की प्रक्रिया 

भारत की तरह ही बांग्लादेश में भी एक उम्मीदवार एक ही वोट डाल सकता है. इस दौरान जिस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं वह जीत जाता है और प्रधानमंत्री के चयन के बाद वह उम्मीदवार बांग्ला या अंग्रेजी में शपथ लेता है और कई हिस्सा में ईवीएम के माध्यम से ही उम्मीदवारों का चयन होता है.

इस आम चुनाव में किन दलों के बीच हो रहा है मुकाबला?

इस चुनाव को वोटिंग से पहले ही कई विश्लेषक ढ़ोंग बता चुके हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि बांग्लादेश के विपक्षी नेताओं और राजनीतिक दलों का इस चुनाव को बहिष्कार कर दिया है. हालांकि ये कहना गलत नहीं होगा कि बांग्लादेश की राजनीति के दो दल ही पर्याय बन चुके हैं.
बांग्लादेश की दो प्रमुख पार्टी के बारे में भी जान लीजिए   

  • शेख हसीना की अवामी लीग 
  • खालिदा जिया के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी.

क्यों चुनाव नहीं लड़ रहा विपक्ष, तीन कारण 

1. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और उनके समर्थक पार्टियों का आरोप है कि शेख हसीना की सरकार निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं है. इतना ही नहीं इसी पार्टी का आरोप है कि वर्तमान सरकार आम चुनाव में धांधली और वोटिंग के दौरान हेरफेर करती है. हालांकि शेख हसीना की सरकार ने इस आरोप को हमेशा ही नकारा है.

2. बीएनपी और उनके सहयोगी दलों ने मांग रखी थी कि इस चुनाव से पहले वर्तमान पीएम यानी शेख हसीना को पद छोड़ देना चाहिए और ये चुनाव अंतरिम सरकार की देखरेख में होना चाहिए ताकि चुनाव परिणाम में कोई धांधली न हो. हालांकि आवामी लीग की मौजूदा सरकार इस मांग के पक्ष में नहीं थी.

3. आम चुनाव का बहिष्कार करने का एक कारण ये भी है कि बीएनपी ओर उसके सहयोगी दलों के लगभग 28 हजार नेता और समर्थक जेल में हैं. जेल में कैद कई चेहरे ऐसे हैं जो एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभा सकते थे. 

इस चुनाव का परिणाम पहले से तय क्यों माना जा रहा है 

दरअसल चुनाव में लगभग 220 सीटें ऐसी है जहां पर शेख हसीना के समर्थक नेता ही एक दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरे हैं. ऐसे में ज्यादा संभवना इसी बात की है कि कोई भी जीते. असली जीत शेख हसीना की आवामी लीग पार्टी की ही होगी. ऐसे में विपक्ष आरोप लगा रहे है कि चुनाव का कोई मतलब नहीं.

पिछले आम चुनाव में किस पार्टी का कैसा रहा प्रदर्शन?

1971 में पाकिस्तान से आजाद होने के बाद बांग्लादेश में 11 आम चुनाव हो चुके हैं. 30 दिसंबर, 2018 को हुए 11 वे आम चुनाव में बांग्लादेश के 80 प्रतिशत वोटर्स ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था. वोटों के आधार पर बांग्लादेश के लोगों ने चौथी बार देश की बागडोर शेख हसीना की आवामी लीग को दिया था. 

इस चुनाव में शेख हसीना की पार्टी ने कुल 257 सीटों पर जीत दर्ज किया था. वहीं दूसरी तरफ जातीय परिषद केवल 26 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब हो सकी थी. पिछले चुनाव में मजबूत विपक्ष मानी जाने वाली खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सिर्फ 7 सीटों पर विजयी हो सकी थी. 

क्या सच में बांग्लादेश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता है?

पाकिस्तान से अलग होने के बाद बांग्लादेश की स्थापना एक लोकतांत्रिक देश के रूप में जरूर हुई थी लेकिन, पिछले 11 आम चुनाव को देखा जाए ये तो कहना गलत नहीं होगा कि इस देश में अभी तक लोकतंत्र की जड़ें गहरी नहीं हो पाई है.

साल 1975 में तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान की हत्या और तख्तापलट के बाद इस देश में 15 साल तक सैन्य शासन रहा और सही मायने में यहां साल 1990 में लोकतंत्र की स्थापना हुई थी.

हालांकि इसके बाद इस देश का राजनीतिक उठा पटक हमेशा ही चर्चा में रहा. इस देश की राजनीति के दो बड़े और प्रमुख चेहरे हैं- बांग्लादेश आवामी लीग की शेख हसीना और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की खालिदा ज़िया.

लेकिन हर बार जब इस देश में आम चुनाव का समय आता है तो कभी आवामी लीग इसका बहिष्कार करती नजर आ रही होती है तो कभी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी. 

हर चुनाव से पहले पार्टियां बहिष्कार करने में क्यों लग जाती है…
 
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज़ के प्रोफेसर संजय भारद्वाज ने बीबीसी की एक रिपोर्ट में इस सवाल का जवाब बताया है. उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में साल 1990 तक सैन्य शासन था. जब सेन का शासन हटा तो वहां केयर टेकर गवर्नमेंट की स्थापना की गई और इसका मुख्य सलाहकार शहाबुद्दीन को नियुक्त किया गया. देश का पांचवां आम चुनाव उनकी देखरेख में ही संपन्न.”

इस चुनाव में बीएनपी (ख़ालिदा ज़िया) की जीत हुई और साल 1991 में वह बांग्लादेश की प्रधानमंत्री चुनी गईं. इसके बाद साल 1996 में 6ठा आम चुनाव होना था, उस वक्त  आवामी लीग ने कहा कि यह चुनाव पिछले चुनाव की तरह ही केयर टेकर सरकार की निगरानी में होनी चाहिए. हालांकि उस वक्त जिया ने आवामी लीग के उस मांग का ठुकरा दिया. 

प्रोफेसर भारद्वाज कहते हैं, “जिया के मांग न मानने पर 6ठे चुनाव में आवामी लीग पार्टी ने भाग नहीं लिया. हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय का दबाव बनने के बाद इस देश के संविधान में 13वां संशोधन किया गया. उस वक्त बांग्लादेश के संविधान में पांच नए प्रावधान जोड़े गया. उनमें एक था कि सरकार का कार्यकाल पूरा होने पर केयर टेकर सरकार बनेगी जो तीन महीने में चुनाव करवाएगी.

इस नियम के बाद बांग्लादेश में उसी साल यानी 1996 में सातवां आम चुनाव करवाया गया और इस चुनाव में आवामी लीग पार्टी की जीत हुई और शेख हसीना प्रधानमंत्री बन गईं. इसके बाद साल 2001 का आठवां आम चुनाव हुआ. उस वक्त यह चुनाव केयर टेकर सरकार की निगरानी में हुआ और देश की पीएम खालिदा जिया बनीं. 

विवाद की शुरुआत नौवें चुनाव से शुरू हुई. दरअसल साल 2006 9वां आम चुनाव होना था. इसमें मुद्दा उठा कि केयर टेकर सरकार का मुख्य सलाहकार कौन होगा. चुनाव से पहले खालिदा जिया की सरकार थी इसलिए उन्होंने जजों की रिटायरमेंट की उम्र बढ़ा दी. उनकी सरकार पर आरोप लगाए गए कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि उनकी पसंद के चीफ जस्टिस का रिटायरमेंट तब हो, जब वह केयर टेकर सरकार के मुख्य सलाहकार बनें. 

शेख हसीना की आवामी लीग पार्टी ने इसका जमकर विरोध किया और चुनाव में हिस्सा लेने से मना कर दिया. आवामी पार्टी के विरोध के बाद सेना को दखलअंदाजी करनी पड़ी और उनके ही देखरेख में फखरुद्दीन की केयर टेकर सरकार बनाई गई. उनकी जिम्मेदारी थी कि वह तीन महीने में फेयर तरीके से चुनाव करवाए. लेकिन केयर टेकर की ये सरकार दो सालों तक सत्ता में रही. 

केयर टेकर सरकार को हटाने के लिए किया गया संशोधन

इसके बाद साल 2008 में नौवां संसदीय चुनाव कराया गया जिनमें आवामी पार्टी को बहुमत मिला. शेख हसीना ने सत्ता में कदम रखते ही 15 वां संविधान संशोधन कर दिया जिसके तहत 13वें संशोधन में की गई केयर टेकर सरकार की व्यवस्था को खत्म कर दिया. इस व्यवस्था को खत्म करते हुए कहा गया कि बांग्लादेश की चुनी हुई सरकार या नेशनल गवर्नमेंट के तहत चुनाव होंगे.”

अब आए साल 2014 का चुनाव. इस आम चुनाव के दौरान खालिदा ज़िया की पार्टी ने कहा कि अगर वर्तमान में जो पार्टी है उनके रहते चुनाव हुए तो ये निष्पक्ष नहीं हो पाएंगे. उन्होंने साल 2014 के आम चुनाव का बहिष्कार कर दिया. नतीजतन ज्यादातर सीटों पर आवामी लीग जीत गई और यह पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में आई. 

इसके बाद साल 2018 में भी विपक्षों ने इसी तरह का आरोप लगाया. हालांकि उस वक्त काफी आना कानी के बाद वह चुनावी मैदान में उतरने तैयार हो गई और इस बार भी इसी मुद्दे को उठाया गया है. 

source by: ABP News

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